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कबीर, जो धन पाय न धर्म करत, नाहीं सद् व्यौहार। सो प्रभु के चोर हैं, फिरते मारो मार।। भावार्थ:- जो धन परमात्मा ने मानव को दिया है, उसमें से जो दान नहीं करते और न अच्छा आचरण करते हैं, वे परमात्मा के चोर हैं जो माया जोड़ने की धुन में मारे-मारे फिरते हैं। संत गरीबदास जी ने भी कहा है कि:- जिन हर की चोरी करी और गए राम गुण भूल। ते विधना बागुल किए, रहे ऊर्ध मुख झूल।। यही प्रमाण गीता अध्याय 3 श्लोक 10 से 13 में कहा है कि जो धर्म-कर्म नहीं करते, जो परमात्मा द्वारा दिए धन से दान आदि धर्म कार्य नहीं करते, वे तो चोर हैं। वे तो अपना शरीर पोषण के लिए ही अन्न पकाते हैं। धर्म में नहीं लगाते, वे तो पाप ही खाते हैं।
कबीर, न्याय धर्मयुक्त कर्म सब करैं, न कर ना कबहू अन्याय। जो अन्यायी पुरूष हैं, बन्धे यमपुर जाऐं।। भावार्थ:- सदा न्याययुक्त कर्म करने चाहिऐं। कभी भी अन्याय नहीं करना चाहिए। जो अन्याय करते हैं, वे यमराज के लोक में नरक में जाते हैं।
To learn about the true worship of Allah during the Islamic New Year, you can read the sacred book Musalman Nahi Samjhe Gyan Quran by Baakhabar Sant Rampal Ji Maharaj
कबीर, कछु कटें सत्संग ते, कछु नाम के जाप। कछु संत के दर्शते, कछु दान प्रताप।। भावार्थ:- भक्त के पाप कई धार्मिक क्रियाओं से समाप्त होते हैं। कुछ सत्संग-वचन सुनने से ज्ञान यज्ञ के कारण, कुछ नाम के जाप से, कुछ संत के दर्शन करने से तथा कुछ दान के प्रभाव से समाप्त होते हैं। जैसे वस्त्र पहनते हैं। मिट्टी-धूल लगने से मैले होते हैं। उनको पानी-साबुन से धोया जाता है। इसी प्रकार नित्य कार्य में पाप लगना स्वाभाविक है। इसी प्रकार वस्त्र की तरह सत्संग वचन, नाम स्मरण, दान व संत दर्शन रूपी साबुन-पानी से नित्य धोने से आत्मा निर्मल रहती है। भक्ति में मन लगा रहता है।
संचित कर्म:- संचित कर्म वे पाप तथा पुण्य कर्म हैं जो जीव ने जन्म-जन्मातरों में किए थे। उनका भोग प्राप्त नहीं हुआ है। वे जमा हैं।
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